Tuesday, February 2, 2010

पूर्ण ब्रह्म

खोल न सकें पढ़ें अल्ला कलाम, सो खोले उमी सब मेहेर इमाम।
अव्वल एही बांधी सरत, खुले माएने जाहेर होसी कयामत
।।

बड़ा कयामत नामा -प्रकरण 5, चौपाई 31

जो लों ले ऊपर के माएने, तो लों कबूं न बूझा जाए।
सक छोड़ न होवे साफ दिल, जो पढ़े सौ साल ऊपर जुबांए।।

मारफत सागर -प्रकरण 11, चौपाई 34

इनमें लिखी इसारतें, निसान पाइए नजर बातन।
लिए ऊपर के माएने, क्यों पाइए कयामत दिन।।

मारफत सागर -प्रकरण 11, चौपाई 18

कागद में ऐसा लिख्या, आवेगा साहेब।
अंदर अर्थ खोलसी, सब जाहेर होसी तब।।

खुलासा -प्रकरण 14, चौपाई 4

इसारतें रमूजें अल्लाह की, सो लेकर हक इलम।
सो खोले रूहअल्लाह की, जिन दिल पर लिख्या बिना कलम।।

मारफत सागर -प्रकरण 11, चौपाई 35

प्यारे सुन्दरसाथ जी, अब से लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व स्वामी जी के समय में “श्री कुलजम सरूप साहेब” का अवतरण हुआ व तब से लेकर अब तक वाणी का खूब पठन हुआ। हम सब सुन्दरसाथ ने यह समझा कि वाणी के अवतरण के साथ ही स्वामी जी ने वाणी का पूर्ण रूप से खुलासा कर दिया व वाणी के सब जाहेर व बातून माएने हमें खोल दिये अर्थात् हमें बेशक इलम प्राप्त हो गया या दूसरे शब्दों में कहा जाए तो हमारी आत्म जागृती (कयामत) हो गयी।

अब विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि हम बेशक हो चुके हैं तो क्या हमें इश्क मिल गया है और हमसे माया छूट गई है जैसा कि वाणी की चौपाई कहती है

बेसक इलम आइया, पाई बेसक हक दिल बात।
हुए बेसक इस्क न आइया, सो क्यों कहिए हक जात।।

खिलवत -प्रकरण 16, चौपाई 103

तोलों चले ना इस्क का, जोलों आड़ी पडी़ सक।
सो सक जब उड़ गई, तब क्यों न आवे इस्क हक।।

खिलवत -प्रकरण 16, चौपाई 101

ए बातें सब असल की, जब याद दई तुम।
तब इस्क वाली रूहों को, क्यों न उडे़ तिलसम।।

खिलवत -प्रकरण 16, चौपाई 81

आइये सुन्दरसाथ जी विचार करें कि जब हमें स्वामी जी के समय ही इश्क मिल गया था तो खेल अभी भी क्यों खड़ा है ? यदि थोड़ा गहराई में उतर कर विचार करेगें तो हमें समझ आयेगा कि असल में हम खेल की शुरूआत को ही खेल का अंत समझ कर बैठ गये जबकि............
रूहों के लिए खेल तो वाणी के अवतरण के साथ ही शुरू हुआ था क्योंकि वाणी तो केवल आई ही रूहों के लिये है बाकी सभी धर्म ग्रन्थों में तो केवल उनके आने के बारे में भविष्य वाणियां इशारतों में लिखी हुई थी जो स्वामी जी ने स्वंय खोल कर दुनियाँ को बता दिया था कि हक व उनकी रूहें इस संसार में आ चुके हैं।

अब इस वाणी में लिखे फुरमान पर चलकर हम सब रूहों को माया को पीठ देकर एक तन, एक मन व एकचित्त होकर वाणी में लिखी इशारतों में छिपे बातून माएनों के आधार पर अपने असल पिया की पहचान करनी थी क्योंकि यदि पिया जी उसी समय सारे गुझ खोल देते तो खेल क्या रहता क्योंकि खेल तो पिया को इस माया में पहचानने का ही था जैसा कि वाणी में लिखा है:-

मैं छिपोंगा तुमसे, तुम पाए न सको मुझ।
न पाओ तरफ मेरीय को, ऐसा खेल देखाऊं गुझ।।

खिलवत -प्रकरण 16, चौपाई 39

ढूंढ़ोगे तुम मुझको, बोहोतक सहूर कर।
मेरा ठौर न पाओ या मुझे, क्योंए ना खुले नजर।।

खिलवत -प्रकरण 14, चौपाई 6

मैं रूह अपनी भेजोंगा, भेख लेसी तुम माफक।
देसी अर्स की निसानियां, पर तुम चीन्ह न सको हक।।

खिलवत -प्रकरण 11, चौपाई 26

ए बात मैं पेहेले कही, रूहें होसी फरामोस।
मेरे इलम बिना तुम कबहूं, आए न सको माहें होस।।

खिलवत -प्रकरण 15, चौपाई 7

ना इस्क ना अकल, ना सुध आप वतन।
ना सुध रेहेसी हक की, ए भूलोगे मूल तन।।

खिलवत -प्रकरण 15, चौपाई 19

वह हमारे बीच में हमारे जैसा ही तन धारण करके आये पर हम उनको पहचान न पाये। परन्तु अब आखिरत में वाणी में लिखी सरत पर अपने कौल को निभाने के लिए वह मोमिनों के दिलों को अर्श करके अपनी पहचान स्वंय दे रहे हैं। जैसा कि लिखा भी है:-

ए बातें हक के दिल की, निपट बारीक हैं सोए।
बिना इस्क दिए हक के, क्यों कर समझे कोए।।

खिलवत -प्रकरण 12, चौपाई 58

इस्क हक के दिल का, क्यों आवे माहें बूझ।
हक देवें तो इस्क आवहीं, ए हक के इस्क का गुझ।।

खिलवत -प्रकरण 12, चौपाई 59

जोस हाल और इस्क, ए आवे न फैल हाल बिन।
सो फैल हाल हक के, बिना बकसीस न पाया किन।।

खिलवत -प्रकरण 5, चौपाई 12

अब सुन्दरसाथ जी जब मेहेरों के सागर अपनी इश्क की बरसात कर रहे हैं तो हम सब सुन्दरसाथ भी अपने तन मन को उसमें डुबो कर अपनी प्रेम व इश्क मयी चाल के द्वारा उनको रिझा लें और दोनों ठौर का लाभ उठा लें क्योंकि:-

याही रब्दें इत आइयां, लेने पिउ का विरहा लज्जत।
सो पाए कदम क्यों छोड़हीं, जाकी असल हक निसबत।।

सिनगार -प्रकरण 7, चौपाई 57

जब आखिर हक जाहेर सुनें, तब खिन में रूहें दौड़त।
सो क्यों रहें कदम पकड़े बिना, जाकी असल हक निसबत।।

सिनगार -प्रकरण 7, चौपाई 62

अर्स मोहोल दिल को किया, आए बैठी हक सूरत।
ए अर्स मेहेर तो भई, जो असल हक निसबत।।

सिनगार -प्रकरण 7, चौपाई 13

ब्रह्मसृष्ट मोमिन कहे, रूहें लेवे वेद कतेब विगत।
ए समझ चरन ग्रहें ब्रह्म के, जाकी ब्रह्म सों निसबत।।

सिनगार -प्रकरण 11, चौपाई 38

पाए बिछुरे पिउ परदेस में, बीच हक न डारें हरकत।
ए करी इस्क परीछा वास्ते, पर ना छूटे हक निसबत।।

सिनगार -प्रकरण 7, चौपाई 77

सुन्दरसाथ जी अब हमें जब हमारी निसबत के कारण हमें असल पिउ की पहचान मिल रही है तो हम क्यों ना पिउ जी के द्वारा ली गई इश्क की परीछा में सफल होकर दिखायें क्योंकि वाणी में पिया कहते है:-

इलम मेरा लेय के, निसंक दुनी से तोड़।
सोई भला इस्क, जो मुझ पे आवे दौड़।।

खिलवत -प्रकरण 16, चौपाई 62

बेसक इलम सीख के, ऐसे खेल को पीठ दे।
देखो कौन आवे दौड़ती, आगूं इस्क मेरा ले।।

खिलवत -प्रकरण 16, चौपाई 85

जब तुम भूले मुझ को, तब इस्क गया भुलाए।
अब नए सिर इस्क, देखो कौन लेय के धाए।।

खिलवत -प्रकरण 16, चौपाई 86

प्यारे सुन्दरसाथ जी हम सब की समस्या अभी भी वही है कि इस माया के घोर अंधकार में असल पिउ (हक) की पहचान और वह पहचान तो वाणी के बातून मायनों में ही छिपी है जो उन्होंने आखिरत में ही अपनी पहचान देने के लिए जाहिर करने थे जिससे कि रूहों की फरामोशी दूर हो जाए और हमें असल की पहचान हो जाए। परन्तु इसके लिए हम सब सुन्दरसाथ को मिलकर सहूर करना पड़ेगा क्योंकि:-

सहूर बिना ए रेहेत है, तेहेकीक जानियो एह।
ए भी हुकम हक बोलावत, हक सहूरें आवत सनेह।।

सिनगार -प्रकरण 25, चौपाई 28

अब जो हिंमत हक देवहीं, तो उठ मिलिए हक सों धाए।
सब रूहें हक सहूर करें, तो जामें तबहीं देवें उड़ाए।।

सिनगार -प्रकरण 25, चौपाई 27

इत आँखें चाहिए हक इलम की, तो हक देखिए नैना बातन।
नैना बातून खुलें हक इलमें, ए सहूर है बीच मोमिन।।

सिनगार -प्रकरण 23, चौपाई 109

अक्षरातीत

योग माया के अखण्ड ब्रह्माण्ड के सत्स्वरूप के आगे नूर मयी परमधाम है, जहाँ पर पूर्ण ब्रह्म का स्वरूप नूर ही नूर तत्व से है वहाँ पर ही उनका स्वलीला अद्वैत और आनन्द का नूरमयी स्वरूप है। उनके रंग महल में वाहेदत और खिलवत है। वहां का कण कण नूरमयी, कोमल, चेतन व सुगन्धि से भरपूर है। वहाँ के पच्चीस पक्षों में हर पल इश्क व आनन्द की ही लीला होती है अक्षर ब्रह्म धाम में होने वाली इसी लीला को देखने की चाहना रखते थे। धाम के इन पच्चीस पक्षों का वर्णन निम्न चौपाई में मिलता है।

धाम तालाब कुंजवन सोहें, वन की नहरें माणिक जोहें।
पश्चिम चैगान बड़ोबन कहिए, एम पुखराज जमुना जी लहिए।।
आठों सागर आठ जिमी के, यह पच्चीस पक्ष हैं धाम धनी के।।

अर्थात् रंग महल, हौज कौसर ताल, कुंज बन, वन की नहरें, माणिक पर्वत, पश्चिम की चैगान, बड़ा बन, पुखराज पर्वत और जमुना जी आठ सागर (नूर, नीर, खीर, दधि, धृत, मधु, रस, सर्वरस) तथा इनके बीच की आठों जमीन परमधाम के पच्चीस पक्ष कहलाते है।

Akshrateet

The Holy Eternal Land of Ultimate Bliss begins above the Sat Swaroop Brahmn of Yog Maya. The Ishqmayi Swaroop (the love form) of Akshrateet resides here with his souls. The pleasant feeling of oneness with Him can be realized here only in Rang Mohol. Each & every minute particle of this universe is made of Noor Tatwa. Akhshar Brahmn always wanted to know ' how the lord loves his souls.' The Supreme Lord is eternal, divinely comforting, soft & full of divine fragrance. This universe is brimming with love & pleasure. This whole realm expands in 25 Divine paksha as is described in the following verse:-

Dham talaav kunj ban johein , manek naheren ban ki sohein |
Paschim chogan badovan kahiye, yon pukhraj jamunaji lahiye ||
Athon sagar aatha jimeekei, yei pacchis paksha hai dham dhani kei |

{These 25 pakshas are Rang Mohol, Hauz Kausar Taal, Kunj Ban, Van Ki Naheren, Manik Parvat, Paschim Ki Chaugan, Bara Ban, Pukhraj Parvat, Aath Sagar (Noor, Neer, Ksheer, Dadhi, Ghrit, Madhu, Ras, Sarvaras) & Aath Jimee in between Aath Sagars.}

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योग माया का ब्रह्माण्ड

निराकार (मोह तत्व) से आगे अखण्ड तत्व है जिसे योगमाया का ब्रह्माण्ड कहते हैं। इस ब्रह्माण्ड में पार ब्रह्म अक्षरातीत के सत् अंग-अक्षर ब्रह्म के अंतः करण (मन, चित्, बुद्धि, अहंकार) की लीला होती है।

Yog Maya Ka Brahmand

Beyond Nirakaar (Moh Tatwa of which this perishable world is made) is the domain of bright & eternal Tatwa which is known as the universe of Yogmaya. Here Akshar Brahmn, right hand (Sat Ang) of Akshrateet carries on his activities of making & destroying many universes. This realm can be divided in four aspects (Mann, Chitt, Buddhi, Ahankaar):-

1. अव्याकृत ब्रह्म (मन)- अव्याकृत ब्रह्म मन का स्वरूप है यहीं पर पाँच वेदों की माता ज्ञान मयी गायत्री, अपर प्रणव ब्रह्म व रोधनी शक्ति का मूल स्थान है। इससे ऊपर काल निरंजन स्वरूप है। यहाँ पर सात महा शून्य जहाँ से सात राग, सात स्वर व सात रंग पैदा होते हैं, का मूल स्थान है। इससे ऊपर मूल प्रकृति या सुमंगला शक्ति है।

Avyakrit Brahmn (Akshar's Mann) – The domain of Avyakrit Brahmn begins with Rodhini Shakti, Upper Pranava Brahmn & the origin of Mool Gayatri (the source of the Five Vedas). Above that is the Kaal Niranjan Swaroop & the principal origin of the Seven Maha Sunyas, Seven Swaras (tunes), Seven Raagas & Seven Colors. Above that is Mool Prakriti (Sumangla Shakti).

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2. सबलिक ब्रह्म (चित्)- यहाँ पर सबलिक ब्रह्म की लीला है। यहीं पर चिदानन्द लेहरी है जो आदि नारायण के जीव का मूल स्थान है। यहीं पर पंच शिव निवास करते हैं- नाद शिव, ब्रह्म शिव, सदा शिव, परा शिव और शिव। यहीं पर ब्रज व रास लीला अखण्ड है।

Sablic Brahmn (Chitt)- Above Avyakrit , in the realm of Sablic Brahmn is present Chidanand lehri who is origin of Maha Jiva of Aadi Narayana. Panch Shiva (Naad Shiva , Brahmn Shiva, Sada Shiva, Para Shiva & Shiva) also reside here. Above Chidanand Lehri is the domain of Akhand Brij & Rass Lila.

3. केवल ब्रह्म (बुद्धि)- केवल ब्रह्म बुद्धि का स्वरूप है। यहाँ पर अखण्ड रास खेली गई थी परन्तु सबलिकब्रह्म में अखण्ड हुई।

Kewal Brahmn (Buddhi)- Above Sablik Brahmn is the realm of Kewal Brahmn where Akhand Raas was palyed.

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4. सत् स्वरूप(अहंकार)- यह उनके अहंकार का स्वरूप है

Sat Swaroop(Ahankar)- Above Kewal Brahmn is the realm of Sat Swaroop Brahmn.

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क्षर

इस समय हम जिस ब्रह्माण्ड में रह रहें हैं वह पाँच तत्व तीन गुणों से बना हुआ है। उसके स्वामी आदि नारायण है जिसको क्षर पुरूष कहा जाता है तथा इस ब्रह्माण्ड को क्षर ब्रह्माण्ड कहते हैं। यह काल माया का ब्रह्माण्ड भी कहलाता है। इस ब्रह्माण्ड में चौदह लोक जिसमें मृत्यु लोक से नीचे सात पाताल व इसके उपर छः लोक है। इन चौदह लोकों को आठ आवरणों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, और अहंकार) ने घेरा हुआ है और हर आवरण पहले आवरण से दस गुना बड़ा है। नवधा प्रकार की भक्ति के द्वारा जीव चार प्रकार की मुक्ति (सालोक, सामीप्य, सारूप, सायुज) को प्राप्त करता है। लेकिन इन आठ आवरणों से पार नहीं जा सकता। इन आठ आवरणों से उपर ओंकार ज्योति स्वरूप (प्रणव, ज्ञान शक्ति गायत्री, निरंजन, निराकार तथा महतत्व) है। प्राकृतिक प्रलय में यहाँ तक सब समाप्त हो जाता है। इसके ऊपर सात शून्य हैं जहां से सात प्रकार के स्वर, राग और रंग निकलते हैं । इसके ऊपर उन्मुनि इच्छा शक्ति है। यह सभी महा शून्य मोह तत्व से घिरे हुए हैं । महाप्रलय में यहां तक सब लय हो जाता है।

Kshar Brahmand

The universe in which we are living at present is made up of five substances (Tatwas) & three matters (gun). The Lord of this universe is Adi Narayan who is known as 'Kshar Purush'. This universe is called 'Kshar Brahmand'. It is also known as Mrityu Lok (Kal Maya). There are fourteen worlds (lokas) in this universe, counting upward from the Mrityu Loka, are six Lokas & downward there are seven Patals. All these fourteen worlds (Lokas) are surrounded by eight envelops (Earth, Water, Fire, Air, Sky, Mind, Intellect & Ego).Each envelop is ten times bigger than the former one. Nine types of devotion (Nawadha Bhakti) can lead a Jiva to four types of (Mukti) salvation (Salok, Samipya, Sarupya & Sayuj), but he cannot cross these eight envelops. Beyond the eight envelops are the domains of Omkar Jyoti Swaroop(Pranava, Gyan Shakti Gayatri , Niranjana, Nirakaar & Mah tatwa.) During Prakrit Pralaya, all these domains cease to exist. Beyond that is the domain of the seven Sunyas, seven Swaras (tunes) Seven Raagas & Seven colors. Above that is the Unmuni Itchha Shakti. All entities upto this point are surrounded by Maha Sunya, Moh Tatwa. And everything till here ceases to exist during Final Dissolution (Maha Parlay).

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१०८ पक्ष

क्षर से अक्षरातीत तक की अध्यात्मिक मंजिल को 108 पक्षों में बताया गया है। इसी के प्रतीक स्वरूप माला में 108 दाने रखे जाते हैं।

नवधा भक्ति (श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चना, वंदना, दास्य, सखा भाव और आत्म निवेदन) के पुष्टि, प्रवाही और मर्यादित भेद से ग्रहण करने से सत्ताईस पक्ष होते हैं। सच्चे दिल से समर्पित होकर भक्ति में लगना पुष्टि कहलाता है। दूसरों की देखा-देखी संसार के प्रवाह के अनुसार भक्ति मार्ग का अनुसरण करना प्रवाह कहलाता है। संसार की हर तरह की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए भक्ति करना मर्यादित कहलाता है। सतोगुण, रजोगुण एंव तमोगुण भेद से सत्ताईस पक्षों के इक्यासी भेद हो जाते हैं। यह भक्ति केवल स्वर्ग और वैकुण्ठ तक ही ले जाती है।

इससे आगे जाने का प्रयास करने वाले निराकार में जाकर रूक जाते हैं। बयासिवां पक्ष श्री वल्लभाचार्य जी का है, जो निराकार से परे गोलोक की लीला का ज्ञान मानते हैं और सखी भाव की भक्ति के अनुसार चलते हैं, किन्तु तारतम ज्ञान से रहित होने के कारण ये भी निराकार से परे गोलोक की स्पष्ट हकीकत नहीं समझ सके तथा प्रतिबिम्ब की लीला में ही उलझे रह गये।


इस बयासिवें पक्ष से परे तिरासिवां पक्ष है जो पुरूष प्रकृति से भी परे योगमाया के अखण्ड सुखों के अन्तर्गत है। यहाँ तक अक्षर ब्रह्म की पांचों वासनाएं शिव, सनकादिक, कबीर, विष्णु भगवान और शुकदेव पहुँची हैं।

बेहद से परे परमधाम के पच्चीस पक्ष हैं। यह सभी मिलकर 108 पक्ष हो जाते हैं-

धाम तालाब कुंजवन सोहें, वन की नेहरें माणिक जोहें।
पश्चिम चौगान बड़ोबन कहिए, एम पुखराज जमुना जी लहिए।।
आठों सागर आठ जिमी के, यह पच्चीस पक्ष हैं धाम धनी के।।