Tuesday, February 2, 2010

१०८ पक्ष

क्षर से अक्षरातीत तक की अध्यात्मिक मंजिल को 108 पक्षों में बताया गया है। इसी के प्रतीक स्वरूप माला में 108 दाने रखे जाते हैं।

नवधा भक्ति (श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चना, वंदना, दास्य, सखा भाव और आत्म निवेदन) के पुष्टि, प्रवाही और मर्यादित भेद से ग्रहण करने से सत्ताईस पक्ष होते हैं। सच्चे दिल से समर्पित होकर भक्ति में लगना पुष्टि कहलाता है। दूसरों की देखा-देखी संसार के प्रवाह के अनुसार भक्ति मार्ग का अनुसरण करना प्रवाह कहलाता है। संसार की हर तरह की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए भक्ति करना मर्यादित कहलाता है। सतोगुण, रजोगुण एंव तमोगुण भेद से सत्ताईस पक्षों के इक्यासी भेद हो जाते हैं। यह भक्ति केवल स्वर्ग और वैकुण्ठ तक ही ले जाती है।

इससे आगे जाने का प्रयास करने वाले निराकार में जाकर रूक जाते हैं। बयासिवां पक्ष श्री वल्लभाचार्य जी का है, जो निराकार से परे गोलोक की लीला का ज्ञान मानते हैं और सखी भाव की भक्ति के अनुसार चलते हैं, किन्तु तारतम ज्ञान से रहित होने के कारण ये भी निराकार से परे गोलोक की स्पष्ट हकीकत नहीं समझ सके तथा प्रतिबिम्ब की लीला में ही उलझे रह गये।


इस बयासिवें पक्ष से परे तिरासिवां पक्ष है जो पुरूष प्रकृति से भी परे योगमाया के अखण्ड सुखों के अन्तर्गत है। यहाँ तक अक्षर ब्रह्म की पांचों वासनाएं शिव, सनकादिक, कबीर, विष्णु भगवान और शुकदेव पहुँची हैं।

बेहद से परे परमधाम के पच्चीस पक्ष हैं। यह सभी मिलकर 108 पक्ष हो जाते हैं-

धाम तालाब कुंजवन सोहें, वन की नेहरें माणिक जोहें।
पश्चिम चौगान बड़ोबन कहिए, एम पुखराज जमुना जी लहिए।।
आठों सागर आठ जिमी के, यह पच्चीस पक्ष हैं धाम धनी के।।

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